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श्री गुरु अर्जुन देव जी

श्री गुरु अर्जुन देव जी { Sri Guru Arjun Dev Ji }, “श्री गुरु राम दास जी” के बाद सिक्खों के पाँचवे गुरु हुए । श्री गुरु अर्जुन देव जी ही सिक्खों में वह पहले गुरु भी हुए जिन्होंने सिक्ख धर्म के लिए कुर्बानी दी । सिक्ख इतिहास में गुरु जी का अहम रोल रहा। गुरु जी ने अमृतसर को सिक्खी का केंद्र बनाया | लोगो के रहने के लिए घर बनवाये और पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए अमृतसर में अमृत सरोवर भी बनवाया | गुरु जी बहुत ही नेक और दयालु सुभाव के थे | जहा गुरु जी सब को सिक्खी का ज्ञान बांटा करते थे वही गुरु जी सब की सहायता के लिए भी हमेशा तत्पर भी रहा करते थे |

जन्म और परिवार { Early Life and Family }

गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 15 अप्रैल 1563 ई. को गोविंदवाल, अमृतसर में हुआ । गुरु जी चौथे गुरु पिता “श्री गुरु राम दास जी” के सबसे छोटे पुत्र थे और इनकी माता बीबी भानी जी थी जो के तीसरे गुरु श्री गुरु अमर दास जी की छोटी पुत्री थी । जिस वजह से “श्री गुरु अमर दास जी” ,गुरु अर्जुन देव जी के नाना थे । गुरु जी के दो बड़े भाई पृथ्वीचंद और महादेव थे ।

श्री गुरु अर्जुन देव जी का वैवाहिक जीवन { Marital Life of Sri Guru Arjun Dev Ji }

श्री गुरु अर्जुन देव जी का विवाह माता गंगा जी से हुआ और 14 जून 1595 को गुरु जी के घर पुत्र श्री गुरु हरगोबिंद का जन्म हुआ । जो गुरु जी के बाद गुरुगद्दी पर विराजे |

शिक्षा { Education }

गुरु जी की शिक्षा पर उनके पिता “श्री गुरु राम दास जी” और नाना “श्री गुरु अमर दास जी” ने शुरुआत से ही विशेष ध्यान दिया था । गुरु जी को गुरुमुखी भाषा का ज्ञान खुद उनके नाना श्री गुरु अमर दास जी ने दिया । अथ्वा गणित का ज्ञान मामा मोहरी, संस्कृत का ज्ञान गांव के पंडित ,फ़ारसी का ज्ञान गांव के मौलवी, और देवनागरी का ज्ञान गांव के पांधे से दिलवाया गया । गुरु जी पढ़ाई लिखाई के इलावा घोड्सवारी और तीरंदाजी में भी माहिर थे ।

 

श्री गुरु अर्जुन देव जी का गुरु बनना { To become Guru of Sri Guru Arjun Dev Ji }

श्री गुरु राम दास जी ने अपने तीनों पुत्रो में से सबसे छोटे पुत्र श्री गुरु अर्जुन देव जी को बाबा बूढ़ा जी की सलाह से गुरु बनाना सही समझा। गुरु अर्जुन देव जी को गुरु बनाने की सभी रस्में बाबा बूढ़ा जी ने ही पूर्ण की । श्री गुरु अर्जुन देव जी मे वह सब गुण थे जिस वजह से श्री गुरु राम दास जी ने उन्हें गुरु चुना अथ्वा उनके बड़ेपुत्र पृथ्वीचंद के मन मे मैल थी | वह परमात्मा को ना मान कर केवल धन इकठ्ठा करता रहता था ।

महादेव गुरु जी का दूसरा पुत्र वह सन्याशी हो गया था , उसने सब त्याग कर खुद को एक ब्रह्मचारी बना लिया और श्री गुरु अर्जुन देव जी हमेशा गुरु का सिमरन करते श्री गुरु राम दास जी को गुरु मान उनकी सेवा करते सदा दूसरों की भलाई सोचते थे । जहि कारण था के श्री गुरु नानक देव जी की जोत ,श्री गुरु राम दास जी द्वारा ,गुरु अर्जुन देव में जलाई गई और 28 अगस्त 1581 को श्री गुरु राम दास जी ने श्री गुरु अर्जुन देव जी को गुरुगद्दी सोंप कर उन्हें अगला गुरु नियुक्त कर दिया ।

गुरु घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ा { Financial condition of Guru Ghar impaired }

पृथ्वीचंद, श्री गुरु अर्जुन देव जी के गुरु बनने से बेहद निराश था । क्योंकि पृथ्वीचंद खुद गद्दी का मालिक बन संगतों का पैसा हड़पना चाहता था । पृथ्वीचंद सोचता था के वह सबमे से बड़ा है उसे ही अगला गुरु नियुक्त किया जाएगा परंतु ऐसा नही हुआ । पृथ्वीचंद ने गुरु जी से बदला लेने के लिए गुरु घर की आर्थिक स्थिति को गिराने के बारे में सोचा। क्योंकि वह जानता था के अगर गुरु घर में सँगते चढ़ावा नही चढ़ाएगी तो गुरु का लंगर और अन्य सब कार्य बंद हो जाएगें और गुरु घर की ऐसी स्थिति में गुरु अर्जुन देव गद्दी नही संभाल पाएगा ।

पृथ्वीचंद ने अपनी इस योजना को सफ़ल करने के लिए संगतों से इकट्ठा होने वाली चूँगी को अपने कब्ज़े में ले लिया और जो सँगते गुरु के दर्शन के लिए आती थी उनसे बाहर से ही पृथ्वीचंद भेटे वसूल कर अपने कब्ज़े में कर लेता था जिस वजह से संगतों की भेटे गुरुघर तक पहुँच ही नही पाती थी ।

संगतों की भेटे ना आने से गुरु घर की आर्थिक स्तिथि कमज़ोर पड़ गई और पृथ्वीचंद अपने मंसूबो में कामजाब होता जा रहा था । धन की कमी होने से गुरु घर की स्थिति जे हुई के गुरुघर मे संगतों के लिए लंगर भी एक समय का ही बनने लगा । पर गुरु जी ने सब सतगुरु का भाना समझा । गुरु जी ने गुरु घर मे लंगर सेवा चलते रहने के लिए पहले अपनी पत्नी गंगा देवी दे जेवर बेचे और फिर अपना घर भी गिरबी रख दिया। गुरु जी ने गोविंदवाल से बाबा मोहरी जी और मोहन जी से भी कुछ माया उधार मांगी पर गुरु घर का लंगर बंद नही होने दिया।

जब गुरु जी को पृथ्वीचंद की इन करतूतों के बारे में पता चला तो गुरु जी ने वापस गुरु घर की स्थिति सुधारने के लिए सिक्खों की एक बैठक बुलाई। गुरु जी ने भाई गुरदास जी और बाबा बूढ़ा जी के नेतृत्व में सिक्खों की डयूटी लगाई के वह सभी संगतों को पृथ्वीचंद के धोखे के बारे में बताए । सिक्ख सभी संगतों को पृथ्वीचंद के मंसूबो के बारे में बताते और भेटे सीधा गुरुद्वार में चढ़ाने के लिए कहते । संगतों की भेटे आने से कुछ ही दिनों में गुरु घर की स्थिति सुधर गई और गुरुघर मुड़ किरपा बरसाने लगा ।

गुरुद्वारा श्री हरिमंदिर साहिब की रचना { Creation of Gurudwara Sri Harimandir Sahib }

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने सिक्खी का एक धार्मिक पूजा स्थान बनाने के बारे में सोचा जहाँ पर सँगते आ कर गुरु का सिमरन कर सके । गुरु जी ने इस कार्य के लिए अमृतसर सरोवर के वीचो-वीच यह धार्मिक स्थल बनवाया और इस स्थल का नाम “श्री हरिमंदिर साहिब रखा गया।” श्री हरिमंदिर साहिब की नींव गुरु जी ने लाहौर के निवासी साई मिया मीर से रखवाई। हरिमंदिर साहिब का पूरा कार्य सन्न 1590 में जाकर संपन्न हुआ।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की रचना { Composition of Sri Guru Granth Sahib }

जब श्री गुरु नानक देव जी इस धरती पर अवतरित हुए तो वह जो भी वचन जा वाणी अपने मुख से निकलते थे उस वाणी को वह एक पोथी में लिख लिया करते । गुरु नानक देव जी ने उस पोथी में कई अन्य भगतों की वाणी भी लिखी थी । गुरु नानक देव जी ने जब भाई लहना को गुरु बना कर गद्दी सोंपी तो साथ मे उन्होंने वह वाणी की पोथी भी भाई लहना को दी । गुरु नानक के बाद आए सभी गुरुओं ने अपनी वाणी उसी पोथी में दर्ज की और गद्दी के साथ वाणी की पोथी भी अगले गुरुओ को समर्पित की ।

जब यह वाणी की पोथी श्री गुरु अर्जुन देव जी तक पहुँची तो उन्होंने इस वाणी की पोथी को एक सच्ची सकल देने के बारे में सोचा । इस सोच को पुर्ण करने के लिए गुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का कार्य आरंभ किया । गुरु ग्रंथ साहिब में कई भगतों और गुरुओं की वाणी को दर्ज किया गया । 3 साल में श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की रचना का कार्य पूर्ण हुआ । उस समय गुरु ग्रंथ साहिब के 974 पन्ने थे । 1604 में गुरु ग्रंथ साहिब जी की स्थापना की गई और पहला ग्रंथी बाबा बूढ़ा जी को बनाया गया ।

श्री गुरु अर्जुन देव जी का शहीदी प्राप्त करना { Achieving martyrdom of Sri Guru Arjun Dev Ji }

जब तक बादशाह अकबर का शासन था तब तक सिक्ख धर्म पर कोई आपत्ति नही आई । गुरु जी सिक्ख धर्म को बड़े प्रेम से चला रहे थे । परंतु जब अकबर के बाद बादशाह जहाँगीर ने शासन करना आरंभ किया तो वह केवल कट्टड मुसलमानों की ही सुनता था । कट्टड हिन्दू और कट्टड मुसलमान दिनों-दिनों सिक्ख दरवार की सोवा को बढ़ते देख सहन नही कर पा रहे थे ।इसलिए कुछ हिंदुओं और मुसलमानों ने बादशाह जहाँगीर के सिक्ख धर्म के खिलाफ़ कान भर दिए ।

जहाँगीर ख़ुद भी सिक्ख धर्म के बारे में कहता था कि “यह भोले भाले लोगों को फसा कर उनसे उनका धन लूटने की साधिस है और जे दुकान पिछली 4-5 पीढ़ियों से चलती आ रही है ।मेरा मन करता है मैं सिक्ख धर्म को जड़ से ख़त्म करदो जा फिर उन्हें इस्लाम मे मिला लू।”

गुरु जी को आने वाले समय का बौद्ध पहले ही हो गया था ।इसलिए उन्होंने 15 मई 1606 को गुरु हरगोबिंद को गुरुगद्दी सोंप कर अगला गुरु नियुक्त कर दिया । इधर बादशाह जहाँगीर ने सिक्ख धर्म को इस्लाम मे मिलाने की अपनी इस सोच को पूरा करने के लिए अपने सैनिक मुर्तजा खान को सिक्ख गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी को बंदी बनाने के लिए भेज दिया । मुर्तजा खान ने गुरु जी को कैद कर लाहौर ले आया । जहाँगीर द्वारा गुरु जी को बहुत तसीहे दिए गए , गुरु जी को धर्म परिवर्तन करने और श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में भी तबदीली करने के लिए कहा गया । पर गुरु जी ने जहाँगीर की एक बात नही मानी और सिक्ख धर्म पर कायम रहे ।

गुरु जी से अपनी बात जबरन मनवाने के लिए जहाँगीर ने गुरु जी को जेठ हाड़ की तपती रेत में छोड़ दिया जब कोई बात ना बनी तो गुरु जी को उबलते पानी की देग में बिठा दिया गया और ऊपर से गुरु जी के शीश पर गर्म रेत डाली गई । गुरु जी ने यह सब परमात्मा का भाना समझा और सांत मन से सब कुछ सहन किया । जब जहाँगीर के इतने तसीहे देने के बाद भी गुरु जी ने सिक्ख धर्म नही छोड़ा तो , जहाँगीर ने गुरु जी को रावी दरिया के ठंडे पानी मे गिरा कर उन्हें शहीद करवा दिया और इसी तरह गुरु जी 30 मई 1606 को अपनी अंतिम समाधि को प्राप्त कर गए

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